Pablo Romero Montesino-Espartero

Pablo Romero Montesino-Espartero
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------Camarote desde donde fueron escritas algunas de estas cartas-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------Con este blog pretendo ir recopilando las cartas escritas por mi hermano Pablo Romero M-E, dirigidas a la familia, durante sus primeros años de navegación tras terminar su carrera de Marino Mercante allá por el final de la década de los años cincuenta, principio de los sesenta-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------.

jueves, 17 de marzo de 2016

ADIOS, GDYNIA, ADIOS

Autor:
Pablo Romero Montesino-Espartero


 
 
 
Mar Báltico   29 de Diciembre de 1969
Carta nº 72
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    El  Alacrity surcando a velocidad reducida un mar de bloques de hielo y a 27 grados bajo cero nos va acercando poco a poco al Canal de Kiel. Por la proa, Alemania Federal, por estribor, Suecia y Dinamarca, por babor Alemania Oriental y para tristeza mía, por la popa, la inmaculadamente blanca Polonia. Allá se queda una buena parte de mi corazón, encerrado en unas fronteras tan inexpugnables como absurdas. Tania me preguntaba cosas acerca de España y del mundo libre; el Mediterráneo, sus playas, la moda femenina, cualquier cosa le maravillaba y exclamaba : “¡estúpido comunismo¡” .
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    Antes de hacernos a la mar nos convocaron a todos e hicieron una revisión profunda del barco buscando algún polizón. Cruzamos la bocana del puerto acompañados por los haces luminosos de potentes reflectores.
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          Toda la tripulación está recluida en sus camarotes y en las guardias de mar se refleja en nuestros rostros cierta tristeza. No hay bromas, tampoco se habla de lo bueno o lo malo de nuestros días en Polonia, cada uno rumia sus recuerdos, pero todos coincidimos en una cosa : jamás olvidaremos las navidades blancas del 69 en Gdynia.
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Pablo